यह लेख एम. ए. सोफी के "ग्रेटर कश्मीर" में प्रकाशित "Public Perception of Mathematics" से प्रेरित है। सोफी उस अपेक्षित प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास करते हैं जिससे हर (भारतीय) गणितज्ञ अपने जीवनकाल में निरंतर जूझते हैं - "आख़िर गणित में शोध होता क्या है"? अक़्सर अगली टिपण्णी गणित के "समाप्त" हो जाने की दिशा में होती है (इस सवाल से मेरी पहली मुलाक़ात बारहवीं कक्षा में ही हो गई थी)। इस लेख के माध्यम से मैं गणित के इतिहास और विकास के चुनिंदा पहलुओं से परिचय करवाना चाहूंगा। साथ ही, मैं गणित में शोध की प्राकृतिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करूंगा।
यह कहना पूर्णतः गलत नहीं होगा कि गणित का प्राचीन काल में निर्माण काफ़ी हद तक मानव सभ्यता की आवश्यकताओं के कारण हुआ था। लगभग अलग-अलग सभ्यताओं (भारत, चीन, मिस्र, मेसोपोटामिया, ग्रीस, इत्यादि) में अंकगणित और ज्यामिति का विकास हिसाब-किताब, संसाधनों के उचित बंटवारे, और विभिन्न निर्माण कार्यों में उपजने वाली समस्याओं के साथ तालमेल में हुआ। जमा, गुना, घटा, भाग, अनुपात, अथवा ज़मीन और निर्माण से संबंधित परिमाण की भूमिका वर्तमान सभ्यता के परिप्रेक्ष्य से बेहद स्वाभाविक ही नज़र आती है (लेकिन यह जानना भी ज़रूरी है कि इन विचारों का निर्माण एक-दो दिन नहीं, बल्कि कई सदियों और सभ्यताओं के पार हुआ)।
लेकिन गणित का निर्माण केवल इन भौतिक आवश्यकताओं के कारण हुआ, यह कहना अनुचित होगा। मानव सभ्यता को अन्य जीव-जंतुओं से अलग करने वाले गुणों में जिज्ञासा प्रथम श्रेणी में है। शुरुआत से ही हम जिज्ञासु प्राणी हैं, जो अपने आप को और अपने ब्रह्माण्ड को बेहतर समझने के लिए इच्छुक रहे हैं। गणित इस जिज्ञासा को एक अनंताकार मंच प्रदान करती है जो भौतिकता से सीमित नहीं है (तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि कई गणितज्ञ और दर्शनशास्त्री, विशेषतः प्राचीन काल में, गणित में गहरा अर्थ पाते थे जो कभी-कभी एक दैव्य-स्वरूप ही धारण कर लेता था)। और जिज्ञासा की एक विचित्र विडंबना है — व्यक्ति को जितने प्रश्नों का उत्तर मिलता है, उतने ही नए प्रश्न उसके मन में फिर जीवन ले लेते हैं। जैसे-जैसे गणित और ब्रह्माण्ड की समझ में हमारा दायरा बढ़ता गया, वैसे-वैसे नए, और भी कठिन प्रश्नों की उपज हुई। न्यूटन के सिद्धांतों के साथ गणित ने (कैलकुलस की शक्ल में) एक नई पारी शुरू करी, जिसने भौतिकी करने और समझने के ढंग में एक क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिया।
इस पृष्ठभूमि में गणित "केवल एक विषय" नहीं, बल्कि पूरी मानव सभ्यता के निर्माण और बौद्धिक परिपक्वता का एक महत्वपूर्ण प्रतिबिंब है। विज्ञान (ख़ासकर भौतिकी) और वर्तमान में सर्वव्यापी टेक्नोलॉजी के विकास में गणित की तरक्की की भूमिका केंद्रीय है। जिस माध्यम से यह लेख आप तक पहुंच पा रहा है, उसका जन्म आधुनिक गणित के बिना असंभव होता, यह अतिशयोक्ति नहीं (हालांकि आधुनिक गणित के अभाव में इस लेख का कोई प्रयोजन भी न होता)। इक्कीसवीं सदी में उन्हीं देशों का बोलबाला होगा जो गहरे, प्रभावी शोध में अपना सिक्का जमाएंगे, और इसमें गणित की उपस्थिति आवश्यक सिद्ध होगी।
पिछले कुछ वाक्यों में मैंने गणित की अन्य क्षेत्रों और सामाजिक लक्ष्यों में भूमिका पर ज़ोर दिया। इसके साथ ही मैं इस बात पर वज़न देना चाहूंगा कि गणित करने की इच्छाशक्ति हमेशा किसी बाहरी स्त्रोत से नहीं आती, और न ही आना ज़रूरी है। गणित में केवल उन्हीं प्रश्नों को महत्व दिया जाना जो "असली दुनिया" की समस्याओं को हल करें उसके चरित्र के साथ विश्वासघात है। प्राकृतिक जिज्ञासा को भौतिक उपयोगिता की कड़ियां पहनाने हमारी पूंजीवादी व्यवस्था का एक दुर्भाग्यपूर्ण हिस्सा है, लेकिन इतिहास साक्षी है कि स्वतंत्र, खुले विचारों से किए गए शोध ने दीर्घकाल में हमेशा क्रांति लाई है। तो अगर आप वस्तुवादी भी हैं, तब भी आपके लिए शोध को व्यावसायिक या मानव उपयोगिता की बेड़ियों में बांधना अव्यावहारिक है। (इस विषय पर बोलने के लिए मैं ख़ुद को मजबूर पाता हूं, क्योंकि अक़्सर ही सरकारी ख़ज़ाने से शोध की उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह लगाया जाता है)
अब यह तो बात रही गणित में शोध में रुचि और आवश्यकता की। लेकिन गणितज्ञ आख़िर करते क्या हैं? मशहूर अमेरिकी-ऑस्ट्रेलियाई गणितज्ञ टेरेंस टाओ गणित में शोध को दो भागों में बांटते हैं। पहला भाग है सिद्धांत-निर्माण (theory building) जिसके अंतर्गत हम गणित की अपनी समझ को तर्क से व्यवस्थित करते हैं। जिस प्रकार विद्यालयों में प्रस्तुत यूक्लिड की ज्यामिति को कुछ मूलभूत सिद्धांतों (postulates) में व्यवस्थित कर के हम अनेकों थ्योरम को तर्क से सिद्ध करते हैं, उसी प्रकार हम गणित में उपजने वाली अनेक वस्तुओं को व्यवस्थित ढंग से किसी सैद्धांतिक-तंत्र (theoretical framework) में समझने, और इस तरह के तंत्रों का निर्माण करने का प्रयास करते हैं। भले ही यूक्लिड की ज्यामिति आपको इस व्यवस्था के लाभ से परिचित कराने में असफल रही हो, लेकिन आधुनिक गणित में इस प्रकार का व्यवस्थापन ही केंद्रीय है (और न की परिचित फॉर्मूले को एकसमान प्रसंगों में इस्तेमाल करते रहना, जो कि गणित की स्कूली और कॉलेजी शिक्षा के कारण एक प्रचलित मिथ्या है)। दूसरा भाग है समस्याओं का हल ढूंढना (problem solving), जहां हम स्थापित सिद्धांतों और तंत्रों का उपयोग किसी विशिष्ट, कठिन समस्या को सुलझाने के लिए करते हैं — अब इसमें और स्कूल की किताबी गणित में क्या फ़र्क है? जवाब ये कि शोध में सवाल का जवाब दिए जाने की संभावना भी पहले से नहीं बताई जा सकती, झट से उसका समाधान करना तो दूर की बात है। यहां यह कहा जाना ज़रूरी है कि यह दो भाग एक दूसरे के विपरीत नहीं, बल्कि एक दूसरे के साथ काम करते हैं, और गणितज्ञों की बड़ी संख्या दोनों समूहों में पाई जाती है। यहां मैं उदाहरण के साथ कुछ कहना चाहता था, लेकिन समय की कमी के चलते यह किसी और लेख के लिए छोड़ रहा हूं — इसके लिए क्षमा!